Thursday, September 8, 2011

तमाम उम्र चला हूँ मगर चला न गया


तमाम उम्र चला हूँ मगर चला न गया
तेरी गली की तरफ़ कोई रास्ता न गया
तेरे ख़याल ने पहना शफ़क का पैराहन
मेरी निगाह से रंगों का सिलसिला न गया
बड़ा अजीब है अफ़साना-ए-मुहब्बत भी
ज़बाँ से क्या ये निगाहों से भी कहा न गया
उभर रहे हैं फ़ज़ाओं में सुब्ह के आसार
ये और बात मेरे दिल का डूबना न गया
खुले दरीचों से आया न एक झोंका भी
घुटन बढ़ी तो हवाओं से दोस्ताना गया
किसी के हिज्र से आगे बढ़ी न उम्र मेरी
वो रात बीत गई ‘नक्श़’ रतजगा न गया
(नक्श लायलपुरी की रचना)

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