Friday, September 9, 2011

सीय राममय सब जग जानी



आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी।।
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू।।
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही।।
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा।।
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ।।
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी।।
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई।।
जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता।।
हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी।।
निज कवित केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका।।
जे पर भनिति सुनत हरषाही। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।।
जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई।।
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई।।
दो0-भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास।।

Thursday, September 8, 2011

तमाम उम्र चला हूँ मगर चला न गया


तमाम उम्र चला हूँ मगर चला न गया
तेरी गली की तरफ़ कोई रास्ता न गया
तेरे ख़याल ने पहना शफ़क का पैराहन
मेरी निगाह से रंगों का सिलसिला न गया
बड़ा अजीब है अफ़साना-ए-मुहब्बत भी
ज़बाँ से क्या ये निगाहों से भी कहा न गया
उभर रहे हैं फ़ज़ाओं में सुब्ह के आसार
ये और बात मेरे दिल का डूबना न गया
खुले दरीचों से आया न एक झोंका भी
घुटन बढ़ी तो हवाओं से दोस्ताना गया
किसी के हिज्र से आगे बढ़ी न उम्र मेरी
वो रात बीत गई ‘नक्श़’ रतजगा न गया
(नक्श लायलपुरी की रचना)

घर से निकला था



अजब जूनून-ए-मुसाफ़त में घर से निकला था,
ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था,
ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया,
अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था,
ये तीर दिल में मगर बे-सबब नहीं उतरा,
कोई तो हर्फ़ लब-ए-चारागर से निकला था,
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया,
कि दिल का दर्द मेरे चश्म-ए-तर से निकला था,
वो कैसे अब जिसे मजनू पुकारते हैं ‘फ़राज़’,
मेरी तरह कोई दिवाना-गर से निकला था,

Wednesday, September 7, 2011

साकेत का अर्थ



अयोध्या के निकट, पूर्व-बौद्धकाल में बसा हुआ नगर जो अयोध्या का एक उपनगर था। वाल्मीकि रामायण से ज्ञात होता है कि श्रीराम के स्वर्गारोहण के पश्चात अयोध्या उजाड़ हो गई थी। जान पड़ता है कि कालांतर में, इस नगरी के, गुप्तकाल में फिर से बसने के पूर्व ही साकेत नामक उपनगर स्थापित हो गया था। वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत के प्राचीन भाग में साकेत का नाम नहीं है। बौद्ध साहित्य में अधिकतर, अयोध्या के उल्लेख के बजाय सर्वत्र साकेत का ही उल्लेख मिलता है, यद्यपि दोनों नगरियों का साथ-साथ वर्णन भी है । गुप्तकाल में साकेत तथा अयोध्या दोनों ही का नाम मिलता है। इस समय तक अयोध्या पुन: बस गई थी और चंद्रगुप्त द्वितीय ने यहाँ अपनी राजधानी भी बनाई थी। कुछ लोगों के मत में बौद्ध काल में साकेत तथा अयोध्या दोनों पर्यायवाची नाम थे किंतु यह सत्य नहीं जान पड़ता। अयोध्या की प्राचीन बस्ती इस समय भी रही होगी किंतु उजाड़ होने के कारण उसका पूर्व गौरव विलुप्त हो गया था।

वेबर के अनुसार साकेत नाम के कई नगर थे
कनिंघम ने साकेत का अभिज्ञान फ़ाह्यान के शाचे और युवानच्वांग की विशाखा नगरी से किया है किंतु अब यह अभिज्ञान अशुद्ध प्रमाणित हो चुका है। सब बातों का निष्कर्ष यह जान पड़ता है कि अयोध्या की रामायण-कालीन बस्ती के उजड़ जाने के पश्चात बौद्ध काल के प्रारंभ में (6ठी-5वीं शती ई॰पू॰) साकेत नामक अयोध्या का एक उपनगर बस गया था जो गुप्तकाल तक प्रसिद्ध रहा और हिंदू धर्म के उत्कर्ष काल में अयोध्या की बस्ती फिर से बस जाने के पश्चात धीरे-धीरे उसी का अंग बन कर अपना पृथक् अस्तित्व खो बैठा।
ऐतिहासिक दृष्टि से साकेत का सर्वप्रथम उल्लेख बौद्ध जातककथाओं में मिलता है। नंदियमिग जातक में साकेत को कोसल-राज की राजधानी बताया गया है।
महावग्ग में साकेत को श्रावस्ती से 6 कोस दूर बताया गया है।
पतंजलि ने द्वितीय शती ई॰पू॰ में साकेत में ग्रीक (यवन) आक्रमणकारियों का उल्लेख करते हुए उनके द्वारा साकेत के आक्रांत होने का वर्णन किया है, अधिकांश विद्वानों के मत में पंतजलि ने यहाँ मेनेंडर (बौद्ध साहित्य का मिलिंद) के भारत-आक्रमण का उल्लेख किया है।
कालिदास ने रघुवंश में रघु की राजधानी को साकेत कहा है-
'जनस्य साकेतनिवासिनस्तौ द्वावप्यभूतामविनन्द्य सत्वौ, गुरुप्रदेयाधिकनि:स्पृहोऽर्थी नृपोऽर्थिकामादधिकप्रदश्च' में राम की राजधानी के निवासियों को साकेत नाम से अभिहित किया गया है।

'यां सैकतोत्संगसुखोचितानाम्' में साकेत के उपवन का उल्लेख है जिसमें लंका से लौटने के पश्चात श्रीराम को ठहराया गया था. उपर्युक्त उद्धरणों से जान पड़ता है कि कालिदास ने अयोध्या और साकेत को एक नगरी माना है। यह स्थिति गुप्त काल अथवा कालिदास के समय में वास्तविक रूप में रही होगी क्योंकि इस समय तक अयोध्या की नई बस्ती फिर से बस चुकी थी और बौद्धकाल का साकेत इसी में सम्मिलित हो गया था। कालिदास ने अयोध्या का तो अनेक स्थानों पर उल्लेख किया ही है। आनुषांगिक रूप से, इस तथ्य से कालिदास का समय गुप्त काल ही सिद्ध होता है।

राम और उनका साकेत



समर्पण
पितः, आज उसको हुए अष्टाविंशति वर्ष,
दीपावली - प्रकाश में जब तुम गए सहर्ष।
भूल गए बहु दुःख-सुख, निरानंद-आनंद;
शैशव में तुमसे सुने याद रहे ये छंद--
"हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार;
अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार?
तुलसी अपने राम को रीझ भजो कै खीज,
उलटो-सूधो ऊगि है खेत परे को बीज।
बनें सो रघुवर सों बनें, कै बिगरे भरपूर;
तुलसी बनें जो और सों, ता बनिबे में धूर।
चातक सुतहिं सिखावहीं, आन धर्म जिन लेहु,
मेरे कुल की बानि है स्वाँति बूँद सों नेहु।"
स्वयं तुम्हारा वह कथन भूला नहीं ललाम-
"वहाँ कल्पना भी सफल, जहाँ हमारे राम।"
तुमने इस जन के लिए क्या क्या किया न हाय!
बना तुम्हारी तृप्ति का मुझसे कौन उपाय?
तुम दयालु थे, दे गए कविता का वरदान।
उसके फल का पिंड यह लो निज प्रभु गुणगान।
आज श्राद्ध के दिन तुम्हें, श्रद्धा-भक्ति-समेत,
अर्पण करता हूँ यही निज कवि-धन 'साकेत'।